Har din kuch naya sikhe
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                   बाड़मेर जिले के गुड़ामालानी उपखंड क्षेत्र मे आज से एक साल पूर्व 2019 को रतनपुरा गांव में एक लीला देवी का चमत्कारिक रहस्यमय "अचानक घर से गायब हो जाना" इस मालाणी क्षेत्र में चमत्कार की लहर दौड़ गई, परिवार के साथ जनप्रतिनिधि शिक्षित लोग गांव का मुख्या सरपंच और साधु संतो तक ने आधुनिक भारत के वैज्ञानिक युग में भी एक चमत्कार का नाम देकर हर इंसान को हक्का बक्का सोचने को मजबूर कर दिया। क्योंकि धर्म का सहारा लेकर यदि कोई कुछ भी काम कर भी ले तो आस्था और श्रद्धा के नाम पर कानून के भी हाथ बंधे रह जाते है। मजहब के नाम पर कितना भी बडा धंधा हो लेकिन आस्था का नाम देकर उसको चमत्कार का रूप दिया जाता है ताकि मजहब के नाम पर लोग अंधविश्वास व अंधभक्ती बरकरार रह सके। 
                   आज इस लीला की लीला को एक वर्ष पूर्ण होने के बाद भी लोग खुलकर कहने की हिम्मत आज भी नही जुटा पा रहे कि यह एक चमत्कार न हो धर्म की आड़ में एक सोची समझी प्रेम की कहानी थी। क्योंकि पहले से शादीशुदा नारी लम्बे समय से मां बाप के साथ रहना हरगिज मुश्किल होता है। महिला का किसी के साथ प्रेम संबंध होना फिर कानूनी रूप से शादी के बंधन में बंध जने की घटना को एक आस्था का सहारा लेकर अंजाम दिया गया ताकि सामाजिक स्तर सहित हर आमजन एक रहस्य चमत्कार ही माना जाये। 
 वास्तव में ऐसे चमत्कार इस कलयुग में बहुत कम होते हैं क्योंकि धर्मशास्त्रों के वर्णन अनुसार धरती पर जब जब पाप बढा हो तो आदि काल से ऐसे चमत्कारिक घटनाओं का उल्लेख मिलता है लेकिन आज विज्ञान व शिक्षा आने के कारण चमत्कार की घटनाओं की नसबंदी हो गई। अन्यथा आज भी हर रोज ऐसे चमत्कार होते रहते। 
                   एक वर्ष बितने के कालांतर में इस घटना पर बहुत ही अधिक रहस्य गहराया, पुलिस से लेकर प्रशासन व उच्च न्यायालय तक मामला गया और प्रशासन ने जांच पड़ताल करते हुए आखिर चमत्कार से पर्दा उठाते हुए वास्तविकता पेश की,अन्यथा आज पहली वर्षगांठ पर लीला देवी का भव्य मंदिर होता और आज पहली वरसी (वर्षगांठ) पर रात्रि जागरण और दिन भरा मेले मे श्रध्दालुओं की लम्बी लम्बी कतारें की भीड़ गवाह होती। लेकिन प्रशासन व जागरूक लोगों इस घटना का पर्दाफाश कर चमत्कार को अंधविश्वास मे बदल दिया गया। 
                   यह चमत्कार नही एक रणनीति के तहत लीला देवी सोची समझी साजिश के तहत यहां से भागकर गुजरात किसी पुरुष के साथ कानूनी रूप से शादी के पवित्र बंधन में बंध गयी। और पूर्व पति द्वारा शायद आज भी उच्च न्यायालय मे मामला विचाराधीन है। 
                   इस घटना घटित होने पर साधु संतो व गांव के मुखिया सरपंच व परिवारजनों ने तक सभी ने कहा कि यह लीला का चमत्कारिक घटना है और अलौकिक शक्ति बनकर एक त्रिशूल मे विलीन हो गई है। सैकड़ों लोगों ने नारियल अगरबत्ती के साथ पूजा-अर्चना कर आने वाले भक्तों ने बडी श्रद्धा के साथ भभूती का माथे पर तिलक लगाया था और प्रसादी भोग लगाने हुए दान के रूपये मे हजारों लाखों रुपये दिये थे गायब होने वाली जगह पर आने वाले दूर दूर से श्रद्धालु दान पात्र में 50-100-200-500 तक की अमानत लीला देवी के चमत्कार को भेट करने के साथ चमत्कारिक सिंदूर का ललाट पर तिलक लगाते हुए पुण्य प्राप्त कर रहे थे। 
                   ऐसा घटना के नाम पर क्या हमारे धर्म की हानि नही होती जो धर्म का सहारा लेकर पवित्र धर्म व आस्था के साथ खेल खैलतै है। और हजारों लाखों लोगों की मुर्ख बनाते हैं। ऐसी तमाम घटनाये इस बात की पुष्टि व गवाह देती है कि लोग धर्म व मज़हब की ओट मे कुकृत्य बलात्कार तक के कार्य करतै है फिर भी हम महान मानते हुए कानून से ऊपर आस्था के नाम पर लकीर के फकीर चलते रहतै है। चाहे आसाराम हो या राम रहीम या रामपाल या शनिदेव बाबा या फिर मठाधीश जो आश्रमों मे रह कर धर्म की ओट मे घिनौना कार्यो को अंजाम देतै है न्यायालय की सजा के बाद फिर भी हम मौन है। 
                   इस जगत का सबसे पवित्र भगवा रंग है जो उगते हुए सूर्य के प्रकाश का प्रतीक है सत्य का प्रतीक है धर्म का प्रतीक है लेकिन इस रंग के चोला ओढे लोग आमजन की आंखों पर आस्था व श्रद्धा की पट्टी बांधकर क्या क्या कारनामे करतै है। वो हम देख तक नहीं सकतै यदि देखतै है तो आवाज तक नहीं उठा सकते फिर धर्म का हनन कौन कर रहा है। 
गलत काम करने वाले या फिर गलत काम से पर्दा उठाते हुए वास्तविकता पेश करने वाले!
यह फैसला आप पर है?? 
                   हमने तो हजारों वर्षों से यही सुना था कि मीरा बाई भगवान की समाधि में समा गई, बाबा रामदेव ने भरी जवानी में समाधि ले ली। सीता का पुत्र कुछ घास से पैदा हुआ,राजा करण कान से पैदा हुआ, क्या ऐसा हुआ था .!! लेकिन आज 21 वीं सदी में हमारे मारवाड़ क्षेत्र में मालाणी की धरा पर रतनपूरा गांव में आज ही के दिन 2019 मे लीला ने चमत्कारिक अपनी लीला बताते हुए,भगवान की मुर्ति मे समा गई। यदि यह कमाल लीला ने नही किया होता तो आज की युवा पीढ़ी शायद विश्वास ही नहीं करती रामदेव व मीराबाई पर लेकिन धन्य हो लीला को जिन्होंने आज कलयुग में करिश्मा कर दिखाया।
                   वैसे हमारे देश का इतिहास रहा है समय समय पर चमत्कार बताने का, आज पहले तो सब चमत्कार ही होते थे सब के सब कान नाक मुंह, भुजा से बच्चे पैदा होते थे और फिर किसी जानवरों या पत्थरों की मुर्तियां मे समाकर,भगवान को प्यारे लेकिन अब शिक्षा व विज्ञान आने के कारण कुछ कम हो गये हैं कभी कभार कोई चमत्कार होता है।
                   यह हमारे देश का दुर्भाग्य है कि आज हम धर्म के नाम पर पांखड व अंधविश्वास को बढ़ावा दे रहे हैं। इसलिए धर्म की आस्था के साथ ऐसा खिलवाड़ हो रहा है। जिससे हजारों करोड़ों लोगों की आस्था व श्रद्धा विश्वास पर धोखा होगा और ठेस पहुंचेगी। आज दिन तक इस जगत में कोई प्रमाणित साक्ष्य के साथ ऐसा चमत्कार नहीं हुआ है और न कभी होगा फिर भी लाखों करोड़ों लोग मानतै है कि कोई अपने आप इस विशाल शरीर को अलोप कर पाया हो सिर्फ अंधभक्ती के नाम पर अंधविश्वास चला आ रहा है। या फिर वास्तविक और सत्य कि एक लीला की अपरम्पार लीला हो गयी। 
                   सभी युवाओं से विशेष निवेदन है कि आप विज्ञान व तकनीकी शिक्षा मे आगे बढते हुए जागरूक बने, ताकि देश का भविष्य उज्जवल हो आज से एक साल पूर्व आज ही के दिन सुरत गुजरात में एक बच्चो की एकेडमी मे आग लगने से कई दर्जन बच्चे आग की भेट चढ़ गयै थे। बहुत ही दुखद बात है कि हर ग्राम में मंदिर मिल जायेगे लेकिन विधालय नही, अस्पताल नही, अग्निशमन यान नही, मृत लोगों की अरबों डॉलर की बड़ी बड़ी मुर्तियां जरूर है कि लेकिन 20-30 फुट की सीढ़ी नही,अस्पतालों में आक्सीजन गैस नही,आमजन किसान मजदूर वर्ग पेट की भूख के आगे बेबस मर रहा है। फिर इससे बडा हमारा मॉडल विश्व के सामने क्या हो सकता है..। क्योंकि हम अध्यात्मिक विश्व गुरु है इस दुनिया को अध्यात्मिक ज्ञान का ताज हमारे पास है। लेकिन समय के साथ धूमिल होता जा रहा है। 
                   जब तक हम धर्म के नाम पर धंधा अंधविश्वास बुराईया नही मिटाते तब तक धर्म को सुरक्षित रखना मुश्किल है। धर्म से प्रेम मोहब्बत का उदय होता है वही से मानवता का जन्म.!
इस विश्व व्यापी कोरोना आपदा से निपटते हुए मानवता का संदेश देना है 
मानव के जीवन की सारस्वत कला ही धर्म है जो सदा से अटल सत्य है। 
सत्य ही परमात्मा है परमात्मा ही प्रकृति है। हम सब को मिलकर धर्म की रक्षा करनी है तभी हम विज्ञान को सुरक्षित रख पायेगे। धर्म के बिना विज्ञान अधूरा है विज्ञान के बिना धर्म !! 
चलते चलते आज एक साल पूर्ण होने पर फिर लीला की लीला  न रह कर एक अंधविश्वास की घटना साबित हो गई। 

सत्य मेव जयते ✍️✍️🙏

अमराराम बोस✒✒(मानव शरीर दानदाता) 
स्वतंत्र पत्रकार व सामाजिक कार्यकर्ता
 धांधलावास गुङामालानी

"सूखी रेत में मानव ने, अपने पौरुष के ताप और आशावान दृष्टिकोण से ही यहाँ  जीवन को अंकुरित किया है।  न केवल अंकुरित अपितु पल्लवित और पुष्पित भी किया है। 

          थार ने भी मानव के साहस को सम्मान दिया और कितना ही कठोर होते हुए भी, वो अवसर दिए कि जीवन का खेल खेला जा सके। थार के धोरों को यहाँ के निवासियों ने भी माँ का पद दिया ,तो माता ने भी अपने बच्चों को कभी निराश नहीं किया । उन्हें उनके कर्म का यथोचित फल दिया। विलक्षण परिस्थियों के परिणाम भी विलक्षण! हैरान कर देने वाले होते हैं। वर्षा जल पर निर्भर होकर भी यहाँ बाजरी,मोठ में जीवन का मीठा रस भरा है। प्रकृति ने केर सांगरी [खोखा] के रूप अपना स्वादिष्ट उपहार दिया। जिसका  देश की हर एक रसोईघर में हृदय से स्वागत है ,अभिनन्दन हैं!

         अपने लम्बे- चौड़े तलवो और मजबूत पिंडलियों पर गठीली ,सुंदर ,लम्बी ,देह वाले यहाँ के निवासी प्रकृति की हर चुनौती का स्वागत करते दीख पड़ते हैं। रेतीले धोरों की चढाइयां ,ढलान , मैदान अपनी लाल धारों वाली मोटी कजली आँखों में ,हौसले  लिए बड़ी कुशलता से पार करते रहे  हैं। 

         सदियों से इनका हमराही रहा ,ऊंट! इस रेतीले समन्दर का जहाज ही हैं । प्रकृति हमारी माँ! ,जो एक हाथ से कुछ लेती है तो ,दुसरे हाथ में कुछ देकर , उस कमी से ध्यान हटा  देती हैं ।कुछ ऐसा ही है यहाँ भी प्रकृति ने इन लोगों पर रेतीला समन्दर उड़ेल दिया तो ,उस से पार पाने के लिए  पुरस्कार स्वरूप ऊंट दिया ।ऊंट अपने स्वभाव और गुणों से पूरा पूरा इस रेत की उपज हो ,ऐसा जान पड़ता हैं ।जो इस प्यासे यात्री के साथ प्यासा ही ,इस टीले से उस टीले पर चला जाता है । कितना प्रेम हैं ,इनदोनो यात्रियों में ।दोनों इस जीवन समर में एक दुसरे के सहारे ,हथियार ,ढाल हैं। 

         अपने ऊंट के साथ इन धोरों पर यात्रा करता यात्री अविरत ,अविराम !अपने स्नेह को अपने ऊंट के शरीर पर रचनात्मक आकृतियाँ बना कर संतुष्ट करता है। ऊंट की पीठ पर पनिहारिन ,मोर ,तोताऔर बड़ी व्यवस्थित आकृतियाँ बना ,रेतीले समंदर को जवाब दिया गया हो जैसे !

         थार में  ऊंट पालन सबने किया है, इनमे भी  रायका रेबारी  समाज का जुडाव कुछ अधिक रहा है। यहाँ जुडाव ना कह कर आत्मीयता कहना अधिक उचित होगा । ऊंट इनके लिए पालतू पशु से कहीं अधिक बड़ा रिश्ता रखता हैं। वो भाई है ,सखा है,बेटा है इसके बिना इनका जीवन अधुरा है यह कह देना अतिश्योक्ति नही होगी ।

        भगवान श्री हरी कृष्ण  का अवतार इस रेतीले मैदान में होता तो उनका बाल रूप ,रास क्रीडाए, और महाभारत की गीता ज्ञान ,सबका साक्षी यह ऊंट रहा होता ,योगीश्वर भी निःसन्देह ऊंट पालक होता । अपने अलगोचो की मधुर तान के साथ रेत के धोरो ,दर धोरों जीवन में कर्म का महत्त्व सीखाता सजीला कृष्णा अपने साफे में मोर पंख लगाए रेत पर पद चिन्ह छोड़ता जा रहा है  ,साथ में दूर जाते अलगोचो की मधुर तान ,विरह की पराकाष्टा हैं ,।जीवन का यथार्थ, हवा के झोंके ने रेत पर से पद  चिन्ह मिटा दिए ,फिर से नए चिन्हों के अंकन के लिए । 

ये लोग अपने आप को यहाँ की प्रकृति को समर्पित कर चुके है ,जैसा यह मरुस्थल चाहेगा वैसा हो जाएँगे!

         कुछ इसी तरह का वचन दिया हो नियति को जैसे प्रकृति में बिना छेड़छाड़ किए सदियों से सामंजस्य बनाए हुए हैं। इसी सामंजस्य से ये लोग यहाँ पनपे हैं विकसित हुए हैं। इनमे जीवन का स्वरूप खानाबदोशी से स्थाई हो चुका हैं ,अब यहाँ  के वातावरण से सम्बन्ध भी स्थाई हो गए। किसी तरह का उलाहना या शिकायतें नहीं हैं। अपितु इन्होंने इस भीषणता में भी  जीवन से  नए रंग उत्पादित किए इन रंगों में अपने रोम-रोम को रंग लिया हैं । ललित कला का लोक रंग इन परिस्थियों में जैसा इन्होनें रचा हैं अन्य दशाओं में ऐसा चटक कुसुमल रंग असम्भव हैं । इनके पहनावे में ,खानपान ,रहन-सहन ,भाषा ,साहित्य,लोकगीत,शिल्प , कहीं भी यहाँ की नियति को लेकर रुदन नही हैं ।अपितु यह सब बिंदु और अधिक कलात्मक रूप से प्रकट हुए हैं,उसपर भी अपने आप में विविधता लिए हुए हैं ,शतप्रतिशत मौलिकता हैं ।कभी कभी ऐसा लगता की यह सब सृजन यहाँ की प्रकृति ने ही किया हैं ।यहाँ के रूप रंग ,सौन्दर्य सब के लिए मरुधरा को धन्यवाद देने का मन हो जाता हैं। निः संदेह वास्तविक सृजनकर्ता प्रकृति ही हैं  ।कितनी सकारात्मकता हैं यहाँ के जीवन में ,महसूस किया जा सकता हैं । 

क्रमशः अगले भाग में...........................
मनीष राज मेघवंशी 

गर लौट सका तो जरूर लौटूंगा, तेरा शहर बसाने को।
पर आज मत रोको मुझको, बस मुझे अब जाने दो।।
मैं खुद जलता था तेरे कारखाने की भट्टियां जलाने को,
मैं तपता था धूप में तेरी अट्टालिकायें बनाने को।

मैंने अंधेरे में खुद को रखा, तेरा चिराग जलाने को।
मैंने हर जुल्म सहे भारत को आत्मनिर्भर बनाने को।

मैं टूट गया हूँ समाज की बंदिशों से।
मैं बिखर गया हूँ जीवन की दुश्वारियों से।

मैंने भी एक सपना देखा था भर पेट खाना खाने को।
पर पानी भी नसीब नहीं हुआ दो बूंद आँसूं बहाने को।

मुझे भी दुःख में मेरी माटी बुलाती है।
मेरे भी बूढ़े माँ-बाप मेरी राह देखते हैं।

मुझे भी अपनी माटी का कर्ज़ चुकाना है।
मुझे मां-बाप को वृद्धाश्रम नहीं पहुंचाना है।

मैं नाप लूंगा सौ योजन पांव के छालों पर।
मैं चल लूंगा मुन्ना को  रखकर कांधों पर।

पर अब मैं नहीं रुकूँगा जेठ के तपते सूरज में।
मैं चल पड़ा हूँ अपनी मंज़िल की ओर।

गर मिट गया अपने गाँव की मिट्टी में तो खुशनसीब समझूंगा।
औऱ गर लौट सका तो जरूर लौटूंगा, तेरा शहर बसाने को।पर आज मत रोको मुझको, बस मुझे अब जाने दो।।


मजदूरों  को सादर समर्पित

नोटः-यह काव्य रचना जिसने भी की वह काबिले तारीफ़ है। 

जिंदा रहे तो फिर से  आयेंगे   बाबू
तुम्हारे शहरों को आबाद करने ।

वहीं मिलेंगे गगन चुंबी इमारतों के नीचे
प्लास्टिक  के  तिरपाल से ढकी  झुग्गियों में  ।

चौराहों पर अपने औजारों के साथ
फैक्ट्रियों से निकलते काले धुंए जैसे होटलों और  ढाबों पर खाना  बनाते ।

बर्तनो को धोते
हर गली हर नुक्कड़ पर फेरियों मे
रिक्शा खींचते।

आटो  चलाते  रिक्शा चलाते पसीने में तर  बतर होकर तुम्हे तुम्हारी  मंजिलों तक पहुंचाते ।
हर कहीं फिर  हम मिल जायेंगे  तुम्हे 
पानी पिलाते गन्ना पेरते ।

कपड़े धोते , प्रेस करते ,   सेठ से किराए पर ली हुई रेहड़ी  पर समोसा तलते या पानीपूरी बेचते ।

ईंट भट्ठों  पर ,
तेजाब से धोते जेवरात को , 
पालिश करते स्टील के बर्तनों को ।

मुरादाबाद ब्राश के कारखानों से लेकर
फिरोजाबाद की चूड़ियों तक ।

पंजाब के हरे भरे लहलहाते  खेतों से   लेकर  लोहा मंडी गोबिंद गढ़ तक।

चाय   बगानों   से लेकर जहाजरानी तक ।

अनाज  मंडियों  मे   माल   ढोते 
हर जगह होंगे हम

बस सिर्फ   एक मेहरबानी कर दो  बाबू  हम पर , इस    बार   हमें अपने  घर पहुंचा दो ।

घर   पर   बूढी  अम्मा  है  बाप है  जवान बहिन है ।
सुनकर खबर महामारी की,  वो बहुत परेशान हैं
बाट जोह रहे हैं सब  मिल  कर  हमारी ,  काका काकी ताया ताई।

मत रोको हमे अब बस  जाने  दो विश्वास जो हमारा तुम  शहर वालों से  टूट चुका उसे वापिस लाने मे थोड़ा हमे समय दो ।

हम भी इन्सान हैं तुम्हारी तरह , वो बात   अलग   है हमारे  तन  पर पसीने की गन्ध के  फटे पुराने कपडे  हैं,  तुमहारे  जैसे   चमकदार  और उजले   कपडे नही।

बाबू  चिन्ता ना करो ,  विश्वास अगर  जमा  पाए  तो  फिर आयेंगे लौट कर ।

जिंदा रहे तो फिर आएँगे लौट कर ।

जिन्दा रहे तो फिर आएँगे लौट कर ।

वैसे अब जीने के उम्मीद तो कम है अगर मर भी गए   तो  हमें  इतना तो हक  दे दो ।

हमें अपने  इलाके की  ही  मिट्टी   मे  समा जाने  दो ।

आपने प्रत्यक्ष  या अप्रत्यक्ष रुप  से  जो  कुछ भी खाने  दिया उसका दिल से  शुक्रिया ।

बना बना कर फूड  पैकेट  हमारी झोली में  डाले  उसका शुक्रिया।

आप भी आखिर कब तक हमको खिलाओगे  ।

वक्त ने अगर ला दिया आपको भी हमारे बराबर फिर हमको   कैसे खिलाओगे ।

तो क्यों नही जाने देते  हो  हमें हमारे घर  और गाँव । 

तुम्हे   मुबारक हो यह   चकाचौंध भरा  शहर   तुम्हारा ।

हमको तो अपनी जान  से प्यारा है भोला भाला  गाँव  हमारा ।।

साभार:- सोशल मीडिया 

       "एक मई, दोपहर का समय बाड़मेर की चौड़ी साफ सडक, एक दम सीधी सड़क हल्की बल खाए जैसे कालीनागिन। सडक पर  दूर-दूर तक ऐसा लग रहा है मानो पानी की छोटी-छोटी तलैया बनी हो। पानी ,ओहो!.. यहां पानी कितना पवित्र और अमूल्य हो जाता है। जो  नाजुक स्थिति में होते हुए भी यहाँ जीवन को बनाए हुए है। थार के रेतीले धोरों में टांको में संचित,जीवन रस,बारिश का मीठा पानी। दूसरी तरफ रोहिड़़ा, खेजड़ी, नीम, इस पारिस्थितिक रंगमंच के अमर चरित्र है। तपती रेत के गर्भ से खारे जल को सींच कर अपने अस्तित्व को बनाए हुए है। रोहिडा़ का  पुष्प,आग उगलते सूरज की चुनौती को स्वीकार किया गया हो और प्रतिउत्तर में ये केसरिया फूल बड़ी सौम्यता से अपनी भूमिका निभा रहा है। खेजड़ी और थार का सम्बन्ध प्रेम कहानी जैसा ही है।..  जहा तपन है, छांह है, नेह है, चुभन है, कोमल स्पर्श है। थार के धोरे में विरही प्रेमिका सी अकेली खड़ी खेजड़ी, माता सीता सी पावन,पवित्र,अशोक वाटिका में व्याकुल, जो जीवन की विपरीत स्थिति में भी हृदय में प्रेम रस बचाए है। यहाँ नीम जहाँ-जहाँ है ,वहां ढाणियां बसी है। नीम की ठंडी छाया यह अहसास करवा ही देती है की कभी इस तपती रेतीली धरा पर विशाल सागर हिलोरे भरता रहा था 
           इसी क्रम में मोर के इन धोरो में सहज दर्शन आश्चर्य में डाल देते है। भारत के मानसूनी हिस्सों में तो मोर और मोरनी हमेशा मादकता के प्रतीक रहे है पर इस तपती धरा पर इन्हें देख कर आप भाव विभोर हो जाएँगे।    मोरिया आछ्यो बोल्यो रे ढ़लती रात म .......गीत,  आज से पहले कितना हल्का लगता था। थार के इस भाग में जब दिन किसी योगी की धूनी बने हुए होते है, तो रात का माहौल ख़ुशनुमा,सुहावना-सा  हो जाता है। ठंडी रेत पर यौवन से बोझिल युवती सी अठखेलियाँ करती ठंडी हवा, उस पर तारो भरे आकाश से हवा में नशा घोलता चाँद ..सुन्दर, सौम्य, शालीन, शीतल का अद्भुत मिश्रण है|
             इस दृश्य में अगर  विरही ,व्याकुल ,रसिक ,मोर की आवाज आवाज आएगी, तो हिवडे में कटार लगना तो लाजिम है अपनी  ढाणी में अकेली अपने प्रेमी के  विरह में करवटे बदल रही युवती जब इस मोर के करुण स्वर को सुनेगी तो आंसू नहीं  रुक पाएँगी। वहीं धोरो को लहर सा पार कर यह स्वर, जब बांहों के पाश में बंधे युगल जोड़ो के कानो को छुएंगे, तो दृश्य भाव मधुबन में कन्हैया के रासलीला से कम ना होगा। ढ़लती रात में मतवाले मोर का स्वर कितना करुण, कितना कामुक, मादकता का चरम  अहसास। वहीं  'गौने' की बाट जो रहे युवक के झोंपे के पास बैठा मोर, जो युवक की दशा से समानता भी रखता है। वह स्वर अलापता है तो यूँ लगता है मानो सामन्ती युग के दाता हुकुम से प्रियसी ने नयनों का रसपान कराते हुए निवेदन किया हो, "अन्नदाता पीओ तो दारू दाखा रो..."

शेष अगले भाग में................ मनीष राज मेघवंशी

E-Maruwani

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