Har din kuch naya sikhe

"सूखी रेत में मानव ने, अपने पौरुष के ताप और आशावान दृष्टिकोण से ही यहाँ  जीवन को अंकुरित किया है।  न केवल अंकुरित अपितु पल्लवित और पुष्पित भी किया है। 

          थार ने भी मानव के साहस को सम्मान दिया और कितना ही कठोर होते हुए भी, वो अवसर दिए कि जीवन का खेल खेला जा सके। थार के धोरों को यहाँ के निवासियों ने भी माँ का पद दिया ,तो माता ने भी अपने बच्चों को कभी निराश नहीं किया । उन्हें उनके कर्म का यथोचित फल दिया। विलक्षण परिस्थियों के परिणाम भी विलक्षण! हैरान कर देने वाले होते हैं। वर्षा जल पर निर्भर होकर भी यहाँ बाजरी,मोठ में जीवन का मीठा रस भरा है। प्रकृति ने केर सांगरी [खोखा] के रूप अपना स्वादिष्ट उपहार दिया। जिसका  देश की हर एक रसोईघर में हृदय से स्वागत है ,अभिनन्दन हैं!

         अपने लम्बे- चौड़े तलवो और मजबूत पिंडलियों पर गठीली ,सुंदर ,लम्बी ,देह वाले यहाँ के निवासी प्रकृति की हर चुनौती का स्वागत करते दीख पड़ते हैं। रेतीले धोरों की चढाइयां ,ढलान , मैदान अपनी लाल धारों वाली मोटी कजली आँखों में ,हौसले  लिए बड़ी कुशलता से पार करते रहे  हैं। 

         सदियों से इनका हमराही रहा ,ऊंट! इस रेतीले समन्दर का जहाज ही हैं । प्रकृति हमारी माँ! ,जो एक हाथ से कुछ लेती है तो ,दुसरे हाथ में कुछ देकर , उस कमी से ध्यान हटा  देती हैं ।कुछ ऐसा ही है यहाँ भी प्रकृति ने इन लोगों पर रेतीला समन्दर उड़ेल दिया तो ,उस से पार पाने के लिए  पुरस्कार स्वरूप ऊंट दिया ।ऊंट अपने स्वभाव और गुणों से पूरा पूरा इस रेत की उपज हो ,ऐसा जान पड़ता हैं ।जो इस प्यासे यात्री के साथ प्यासा ही ,इस टीले से उस टीले पर चला जाता है । कितना प्रेम हैं ,इनदोनो यात्रियों में ।दोनों इस जीवन समर में एक दुसरे के सहारे ,हथियार ,ढाल हैं। 

         अपने ऊंट के साथ इन धोरों पर यात्रा करता यात्री अविरत ,अविराम !अपने स्नेह को अपने ऊंट के शरीर पर रचनात्मक आकृतियाँ बना कर संतुष्ट करता है। ऊंट की पीठ पर पनिहारिन ,मोर ,तोताऔर बड़ी व्यवस्थित आकृतियाँ बना ,रेतीले समंदर को जवाब दिया गया हो जैसे !

         थार में  ऊंट पालन सबने किया है, इनमे भी  रायका रेबारी  समाज का जुडाव कुछ अधिक रहा है। यहाँ जुडाव ना कह कर आत्मीयता कहना अधिक उचित होगा । ऊंट इनके लिए पालतू पशु से कहीं अधिक बड़ा रिश्ता रखता हैं। वो भाई है ,सखा है,बेटा है इसके बिना इनका जीवन अधुरा है यह कह देना अतिश्योक्ति नही होगी ।

        भगवान श्री हरी कृष्ण  का अवतार इस रेतीले मैदान में होता तो उनका बाल रूप ,रास क्रीडाए, और महाभारत की गीता ज्ञान ,सबका साक्षी यह ऊंट रहा होता ,योगीश्वर भी निःसन्देह ऊंट पालक होता । अपने अलगोचो की मधुर तान के साथ रेत के धोरो ,दर धोरों जीवन में कर्म का महत्त्व सीखाता सजीला कृष्णा अपने साफे में मोर पंख लगाए रेत पर पद चिन्ह छोड़ता जा रहा है  ,साथ में दूर जाते अलगोचो की मधुर तान ,विरह की पराकाष्टा हैं ,।जीवन का यथार्थ, हवा के झोंके ने रेत पर से पद  चिन्ह मिटा दिए ,फिर से नए चिन्हों के अंकन के लिए । 

ये लोग अपने आप को यहाँ की प्रकृति को समर्पित कर चुके है ,जैसा यह मरुस्थल चाहेगा वैसा हो जाएँगे!

         कुछ इसी तरह का वचन दिया हो नियति को जैसे प्रकृति में बिना छेड़छाड़ किए सदियों से सामंजस्य बनाए हुए हैं। इसी सामंजस्य से ये लोग यहाँ पनपे हैं विकसित हुए हैं। इनमे जीवन का स्वरूप खानाबदोशी से स्थाई हो चुका हैं ,अब यहाँ  के वातावरण से सम्बन्ध भी स्थाई हो गए। किसी तरह का उलाहना या शिकायतें नहीं हैं। अपितु इन्होंने इस भीषणता में भी  जीवन से  नए रंग उत्पादित किए इन रंगों में अपने रोम-रोम को रंग लिया हैं । ललित कला का लोक रंग इन परिस्थियों में जैसा इन्होनें रचा हैं अन्य दशाओं में ऐसा चटक कुसुमल रंग असम्भव हैं । इनके पहनावे में ,खानपान ,रहन-सहन ,भाषा ,साहित्य,लोकगीत,शिल्प , कहीं भी यहाँ की नियति को लेकर रुदन नही हैं ।अपितु यह सब बिंदु और अधिक कलात्मक रूप से प्रकट हुए हैं,उसपर भी अपने आप में विविधता लिए हुए हैं ,शतप्रतिशत मौलिकता हैं ।कभी कभी ऐसा लगता की यह सब सृजन यहाँ की प्रकृति ने ही किया हैं ।यहाँ के रूप रंग ,सौन्दर्य सब के लिए मरुधरा को धन्यवाद देने का मन हो जाता हैं। निः संदेह वास्तविक सृजनकर्ता प्रकृति ही हैं  ।कितनी सकारात्मकता हैं यहाँ के जीवन में ,महसूस किया जा सकता हैं । 

क्रमशः अगले भाग में...........................
मनीष राज मेघवंशी 

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मरूवाणी न्यूज़ नेटवर्क

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