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गर लौट सका तो जरूर लौटूंगा, तेरा शहर बसाने को।
पर आज मत रोको मुझको, बस मुझे अब जाने दो।।
मैं खुद जलता था तेरे कारखाने की भट्टियां जलाने को,
मैं तपता था धूप में तेरी अट्टालिकायें बनाने को।

मैंने अंधेरे में खुद को रखा, तेरा चिराग जलाने को।
मैंने हर जुल्म सहे भारत को आत्मनिर्भर बनाने को।

मैं टूट गया हूँ समाज की बंदिशों से।
मैं बिखर गया हूँ जीवन की दुश्वारियों से।

मैंने भी एक सपना देखा था भर पेट खाना खाने को।
पर पानी भी नसीब नहीं हुआ दो बूंद आँसूं बहाने को।

मुझे भी दुःख में मेरी माटी बुलाती है।
मेरे भी बूढ़े माँ-बाप मेरी राह देखते हैं।

मुझे भी अपनी माटी का कर्ज़ चुकाना है।
मुझे मां-बाप को वृद्धाश्रम नहीं पहुंचाना है।

मैं नाप लूंगा सौ योजन पांव के छालों पर।
मैं चल लूंगा मुन्ना को  रखकर कांधों पर।

पर अब मैं नहीं रुकूँगा जेठ के तपते सूरज में।
मैं चल पड़ा हूँ अपनी मंज़िल की ओर।

गर मिट गया अपने गाँव की मिट्टी में तो खुशनसीब समझूंगा।
औऱ गर लौट सका तो जरूर लौटूंगा, तेरा शहर बसाने को।पर आज मत रोको मुझको, बस मुझे अब जाने दो।।


मजदूरों  को सादर समर्पित

नोटः-यह काव्य रचना जिसने भी की वह काबिले तारीफ़ है। 

जिंदा रहे तो फिर से  आयेंगे   बाबू
तुम्हारे शहरों को आबाद करने ।

वहीं मिलेंगे गगन चुंबी इमारतों के नीचे
प्लास्टिक  के  तिरपाल से ढकी  झुग्गियों में  ।

चौराहों पर अपने औजारों के साथ
फैक्ट्रियों से निकलते काले धुंए जैसे होटलों और  ढाबों पर खाना  बनाते ।

बर्तनो को धोते
हर गली हर नुक्कड़ पर फेरियों मे
रिक्शा खींचते।

आटो  चलाते  रिक्शा चलाते पसीने में तर  बतर होकर तुम्हे तुम्हारी  मंजिलों तक पहुंचाते ।
हर कहीं फिर  हम मिल जायेंगे  तुम्हे 
पानी पिलाते गन्ना पेरते ।

कपड़े धोते , प्रेस करते ,   सेठ से किराए पर ली हुई रेहड़ी  पर समोसा तलते या पानीपूरी बेचते ।

ईंट भट्ठों  पर ,
तेजाब से धोते जेवरात को , 
पालिश करते स्टील के बर्तनों को ।

मुरादाबाद ब्राश के कारखानों से लेकर
फिरोजाबाद की चूड़ियों तक ।

पंजाब के हरे भरे लहलहाते  खेतों से   लेकर  लोहा मंडी गोबिंद गढ़ तक।

चाय   बगानों   से लेकर जहाजरानी तक ।

अनाज  मंडियों  मे   माल   ढोते 
हर जगह होंगे हम

बस सिर्फ   एक मेहरबानी कर दो  बाबू  हम पर , इस    बार   हमें अपने  घर पहुंचा दो ।

घर   पर   बूढी  अम्मा  है  बाप है  जवान बहिन है ।
सुनकर खबर महामारी की,  वो बहुत परेशान हैं
बाट जोह रहे हैं सब  मिल  कर  हमारी ,  काका काकी ताया ताई।

मत रोको हमे अब बस  जाने  दो विश्वास जो हमारा तुम  शहर वालों से  टूट चुका उसे वापिस लाने मे थोड़ा हमे समय दो ।

हम भी इन्सान हैं तुम्हारी तरह , वो बात   अलग   है हमारे  तन  पर पसीने की गन्ध के  फटे पुराने कपडे  हैं,  तुमहारे  जैसे   चमकदार  और उजले   कपडे नही।

बाबू  चिन्ता ना करो ,  विश्वास अगर  जमा  पाए  तो  फिर आयेंगे लौट कर ।

जिंदा रहे तो फिर आएँगे लौट कर ।

जिन्दा रहे तो फिर आएँगे लौट कर ।

वैसे अब जीने के उम्मीद तो कम है अगर मर भी गए   तो  हमें  इतना तो हक  दे दो ।

हमें अपने  इलाके की  ही  मिट्टी   मे  समा जाने  दो ।

आपने प्रत्यक्ष  या अप्रत्यक्ष रुप  से  जो  कुछ भी खाने  दिया उसका दिल से  शुक्रिया ।

बना बना कर फूड  पैकेट  हमारी झोली में  डाले  उसका शुक्रिया।

आप भी आखिर कब तक हमको खिलाओगे  ।

वक्त ने अगर ला दिया आपको भी हमारे बराबर फिर हमको   कैसे खिलाओगे ।

तो क्यों नही जाने देते  हो  हमें हमारे घर  और गाँव । 

तुम्हे   मुबारक हो यह   चकाचौंध भरा  शहर   तुम्हारा ।

हमको तो अपनी जान  से प्यारा है भोला भाला  गाँव  हमारा ।।

साभार:- सोशल मीडिया 


वो मासूम सी नाजुक बच्ची, एक आँगन की कली थी वो।
माँ बाप की आँख का तारा थी, अरमानो से पली थी वो।।

जिसकी मासूम अदाओ से, माँ बाप का दिन बन जाता था।
जिसकी एक मुस्कान के आगे, पत्थर भी मोम बन जाता था।।

वो छोटी सी बच्ची थी, ढंग से बोल ना पाती थी।
देख के जिसकी मासूमियत, उदासी मुस्कान बन जाती थी।।

जिसने जीवन के केवल, छह बसंत ही देख़े थे।
उसपे ये अन्याय हुआ, ये कैसे विधि के लिखे थे।।

एक छह साल की बच्ची पे, ये कैसा अत्याचार हुआ।
एक बच्ची को बचा सके ना, कैसा मुल्क लाचार हुआ।।

उस बच्ची पे जुल्म हुआ, वो कितनी रोई होगी।
मेरा कलेजा फट जाता है,तो माँ कैसे सोयी होगी।।
 

जिस मासूम को देखके मन में, प्यार उमड़ के आता है।
देख उसी को मन में कुछ के, हैवान उत्तर क्यों आता है।।

कपड़ो के कारण होते रेप, जो कहे उन्हें बतलाऊ मैं।
आखिर छह साल की बच्ची को, साड़ी कैसे पहनाऊँ मैं।।

गर अब भी हम ना सुधरे तो, एक दिन ऐसा आएगा।
इस देश को बेटी देने में, भगवान भी जब घबराएगा।। 

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E-Maruwani

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