Har din kuch naya sikhe

       "एक मई, दोपहर का समय बाड़मेर की चौड़ी साफ सडक, एक दम सीधी सड़क हल्की बल खाए जैसे कालीनागिन। सडक पर  दूर-दूर तक ऐसा लग रहा है मानो पानी की छोटी-छोटी तलैया बनी हो। पानी ,ओहो!.. यहां पानी कितना पवित्र और अमूल्य हो जाता है। जो  नाजुक स्थिति में होते हुए भी यहाँ जीवन को बनाए हुए है। थार के रेतीले धोरों में टांको में संचित,जीवन रस,बारिश का मीठा पानी। दूसरी तरफ रोहिड़़ा, खेजड़ी, नीम, इस पारिस्थितिक रंगमंच के अमर चरित्र है। तपती रेत के गर्भ से खारे जल को सींच कर अपने अस्तित्व को बनाए हुए है। रोहिडा़ का  पुष्प,आग उगलते सूरज की चुनौती को स्वीकार किया गया हो और प्रतिउत्तर में ये केसरिया फूल बड़ी सौम्यता से अपनी भूमिका निभा रहा है। खेजड़ी और थार का सम्बन्ध प्रेम कहानी जैसा ही है।..  जहा तपन है, छांह है, नेह है, चुभन है, कोमल स्पर्श है। थार के धोरे में विरही प्रेमिका सी अकेली खड़ी खेजड़ी, माता सीता सी पावन,पवित्र,अशोक वाटिका में व्याकुल, जो जीवन की विपरीत स्थिति में भी हृदय में प्रेम रस बचाए है। यहाँ नीम जहाँ-जहाँ है ,वहां ढाणियां बसी है। नीम की ठंडी छाया यह अहसास करवा ही देती है की कभी इस तपती रेतीली धरा पर विशाल सागर हिलोरे भरता रहा था 
           इसी क्रम में मोर के इन धोरो में सहज दर्शन आश्चर्य में डाल देते है। भारत के मानसूनी हिस्सों में तो मोर और मोरनी हमेशा मादकता के प्रतीक रहे है पर इस तपती धरा पर इन्हें देख कर आप भाव विभोर हो जाएँगे।    मोरिया आछ्यो बोल्यो रे ढ़लती रात म .......गीत,  आज से पहले कितना हल्का लगता था। थार के इस भाग में जब दिन किसी योगी की धूनी बने हुए होते है, तो रात का माहौल ख़ुशनुमा,सुहावना-सा  हो जाता है। ठंडी रेत पर यौवन से बोझिल युवती सी अठखेलियाँ करती ठंडी हवा, उस पर तारो भरे आकाश से हवा में नशा घोलता चाँद ..सुन्दर, सौम्य, शालीन, शीतल का अद्भुत मिश्रण है|
             इस दृश्य में अगर  विरही ,व्याकुल ,रसिक ,मोर की आवाज आवाज आएगी, तो हिवडे में कटार लगना तो लाजिम है अपनी  ढाणी में अकेली अपने प्रेमी के  विरह में करवटे बदल रही युवती जब इस मोर के करुण स्वर को सुनेगी तो आंसू नहीं  रुक पाएँगी। वहीं धोरो को लहर सा पार कर यह स्वर, जब बांहों के पाश में बंधे युगल जोड़ो के कानो को छुएंगे, तो दृश्य भाव मधुबन में कन्हैया के रासलीला से कम ना होगा। ढ़लती रात में मतवाले मोर का स्वर कितना करुण, कितना कामुक, मादकता का चरम  अहसास। वहीं  'गौने' की बाट जो रहे युवक के झोंपे के पास बैठा मोर, जो युवक की दशा से समानता भी रखता है। वह स्वर अलापता है तो यूँ लगता है मानो सामन्ती युग के दाता हुकुम से प्रियसी ने नयनों का रसपान कराते हुए निवेदन किया हो, "अन्नदाता पीओ तो दारू दाखा रो..."

शेष अगले भाग में................ मनीष राज मेघवंशी

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मरूवाणी न्यूज़ नेटवर्क

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